मिथिला पेंटिंग में समुद्र मंथन

लोक परंपरा लोक कलाओं में जीवन पाती हैं. लोक कला की गोद में रहकर लोक-समाज के बीच हंसती, खेलती, मुस्कुराती हैं. लोक कला का एक रूप चित्रकारी है. देश के हर हिस्से में विशेष प्रकार की चित्रकला मिलती है. यह कला उस स्थान विशेष से जुड़ी सदियों की परंपरा को संजोने और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सहज रूप से हस्तांतरित करने का काम भी करती हैं. चित्रों के माध्यम से घटनाओं, संदेशों और विचारों को समझना आसान भी होता है.

मधुबनी चित्रकला

बात बिहार के मिथिलांचल की करें तो इस क्षेत्र की मधुबनी चित्रकला पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है. ऐसा मानते हैं कि प्रतापी राजा जनक ने राम-सीता के विवाह के समय इसे बनवाया था. बाद में जनकपुर और मिथिलांचल के बड़े इलाके में यह चित्रकला स्थापित हो गयी.

मधुबनी चित्रकला की कथा-वस्तु
जनक के समय प्रारंभ हुआ तो राम-सीता के प्रकरण मधुबनी चित्रकला में बहुतायत से मिलते हैं. मधुबन का अर्थ होता है 'शहद का वन' और यह स्थान राधा-कृष्ण की मधुर लीलाओं के लिये प्रसिद्ध है. मधुबनी की लोक कला में भी कृष्ण की लीलाओं को चित्रित किया गया है। इन विषयों के अलावा प्रकृति की लीलाओं का भी खूब चित्रण हुआ है.


मधुबनी चित्रकला में समुद्र मंथन
राम-सीता, राधा-कृष्ण और प्रकृति की चित्रकारी के अलावा जो एक विषय वस्तु मधुबनी चित्रकला में बहुतायत से देखी जा सकती है वह है- समुद्र मंथन की कथा. समुद्र मंथन से जुड़ी अलग-अलग घटनाओं को इन चित्रों में बखूबी दिखाया गया है. मंथन से निकले हलाहल विष को शिव भगवान के पीने की घटना हो या लक्ष्मी जी के अवतरण की घटना मधुबनी चित्रकला में इसे पर्याप्त स्थान मिला है.

शास्त्र सभी के लिए सुगम नहीं होते. प्रमाणों का विश्लेषण सभी के सामर्थ्य की बात नहीं होती लेकिन लोक आस्था में जो बात जीवित रह जाए वो घटना कालजयी हो जाती है. मिथिलांचल के इलाके में समुद्र मंथन हुआ यह इतिहास की बात है. भौगोलिक स्थितियां बदली, प्रसंग और संदर्भ बदले, स्मृति लोप हुआ तो परंपरा के प्रति हम निरपेक्ष भी हुए. गुलामी के लंबे कालखंड में समुद्र मंथन ही नहीं हम कई परंपराओं के प्रति उदासीन हुए.


भारतीय संस्कृति का पुनर्जागरण काल
वर्तमान काल को इतिहास में भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण काल के रूप में स्थान दिया जाएगा. भारत के जिस प्राचीन गौरवशाली इतिहास को अभी तक भ्रम, संशय और प्रश्न की दृष्टि से देखा जाता था उसे लेकर एक विश्लेषणात्मक दृष्टि पैदा हुई है. उन बातों को हंसी में न उड़ा कर विद्वान लोग उनके विश्लेषण का साहस जुटा रहे हैं.

सिद्ध हो रही हैं बातें
सरस्वती नदी और रामसेतु की वैज्ञनिकता सिद्ध हो चुकी है. रामायण, महाभारत और गीता का काल निर्धारण हो चुका है. वेदों की ऐतिहासिक भी सिद्ध है. भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान से दुनिया चकित हो रही है तो भारत के विद्वान भी यह सब मानने का मन बना रहे हैं.




मिथिलांचल में समुद्र मंथन
इसी कड़ी में मिथिलांचल में समुद्र मंथन की प्रामाणिकता भी अब संदेह से परे है. लोक आस्था में यह जीवित है यह सबसे बड़ा प्रमाण और संबल है. मिथिलांचल की मधुबनी चित्रकला में समुद्र मंथन का चित्रण संयोग कहकर खारिज भी किया जा सकता है. प्रश्न फिर यह होगा कि किसी भी और चित्रकला में समुद्र मंथन को ठीक वही स्थान क्यों नहीं मिला. मधुबनी चित्रकला और मिथिलांचल से समुद्र मंथन का क्या संबंध यह बताना ही पड़ेगा. बहरहाल आस्था के विशाल पर्वत के समझ शंका, संदेह के सारे प्रश्न बौने ही साबित होंगे.

सिमरियाधाम में महाकुंभ
परंपरा के पुनर्जीवन की इसी कड़ी में हजारों वर्षों बाद मिथिलांचल के पवित्र गंगा तट सिमरिधाम में महाकुंभ लगने जा रहा है. मिथिलांचल ऐतिहासिक समुद्र मंथन की केन्द्रीय भूमि रही इस कारण सिमरिधाम को आदि कुंभस्थली भी कहते हैं.


(लेख और फोटो श्याम किशोर सहाय जी के फेसबुक वॉल से)

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