मिथिलांचल में समुद्र मंथन

समय के प्रवाह में आप किसी सुरीले गीत के बोल भले ही भूल जाएं उसकी धुन मन में फिर भी बजती रहती है. ऐतिहासिक परंपराएं भी कुछ ऐसे ही प्रभाव लिए होती हैं. कालक्रम में वो भले उसी स्वरूप में न बनी रहे, लोक आस्था में अपना स्थान नहीं छोड़ती. मिथिलांचल के इलाके से समुद्र मंथन की कथा भी कुछ ऐसे ही जुड़ी है. सावन के महीने में मिथिलांचल में नवविवाहित स्त्रियां मधुश्रावणी का पर्व मनाती हैं.

विवाह के बाद पड़ने वाले पहले सावन में पति की लंबी आयु की कामना के लिए यह पर्व मनाया जाता है. यह भी जानना भी कम रोचक नहीं कि पुरोहिताइन व्रतियों को हर दिन एक कथा सुनाती हैं. इसमें पृथ्वी की उत्पत्ति की कथा होती है तो सती की भी, बिषहरी, विहुला और मनसा की कथा होती है तो मंगला गौरी की भी. लेकिन जो सबसे अचरच की बात है कि मिथिलांचल के क्षेत्र में मनाए जाने वाले इस पर्व में कथाओं के क्रम में एक दिन नवविवाहिताओं को समुद्र मंथन की कथा भी सुनायी जाती है. भारतीय वांग्मय का एक प्रतिष्ठित ग्रंथ है रुद्रयामल तंत्र. उसमें स्वयं भगवान शिव अपनी अर्धांगिनी पार्वती को समुद्र मंथन की कथा सुनाते हैं. इसे हम सुखद संयोग कहकर खारिज भी कर सकते हैं लेकिन इस क्षेत्र में हुए समुद्र मंथन के अन्य प्रमाणों के साथ जोड़कर देखें तो एक गहन विवेचना का विषय भी है.



क्षीर समुद्र मथै छी अनंत भगवान मिलल
यह सच है कि संसार के इस भव सागर में सभ्यताओं से जुड़ी संस्कृति परंपराओं की नौका पर सवार होकर ही हजारों वर्षों का सफर तय करती हैं. इस अनंत यात्रा में उसकी खेवनहार होती है लोक आस्था. इसी गहरी आस्था के कारण ही मिथिलांचल में किसी समय हुए समुद्र मंथन की घटना आज भी जीवित है.

कराल जनक तक रही कुंभ की परंपर
घटना कुछ ऐसी है कि राजा निमी की मृत्यु के बाद उनके शरीर का मंथन हुआ और इसी मंथन से जनक पैदा हुए. जनक वंश के राजा कराल जनक तक मिथिलांचल में कुंभ की परंपरा रही लेकिन अनेकों परंपराओं के साथ कालक्रम में यह भी लुप्त हो गयी. हां कल्पवास की परंपरा यहां अवश्य चलती रही.

कल्पवास हैं कुंभ का अवशेष
मिथिलांचल में कुंभ को लेकर अलग-अलग मत रखने वाले भी इस बात को लेकर एकमत हैं कि कल्पवास कुंभ का ही अवशेष होता है. सिमरिया जहां अनंत काल से कल्पवास की परंपरा है वहां लगने जा रहे महाकुंभ का सबसे बड़ा यही आधार है.

अनंत चतुर्दशी व्रत: समुद्र मंथन का प्रतीक
यह जानना रोचक है कि हजारों वर्षों बाद भी मिथिलांचल में कैसे लोक परंपराओं के माध्यम से समुद्र मंथन की कथा मानस में अटूट रूप से अंकित है. अनंत चतुर्दशी का व्रत वैसे तो पूरे देश में मनाया जाता है लेकिन इस दिन बांह पर अनंत नाम का रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा संभवतः मिथिलांचल के इलाके में ही पायी जाती है. अनंत पूजा के क्रम में पुरोहित यजमान को एक दूध भरे छोटे से कलश में खीरा से मंथन करने को कहता है. यहां दूध भरा कलश क्षीर सागर का प्रतीक है और खीरा मंदार पर्वत का.

इस मंथन के क्रम में पुरोहित प्रश्न करता है-
किम् मंथसे?- क्या मंथन करते हो ?
यजमान कहता है- क्षीर निधिम
यानी क्षीर सागर का मंथन करता हूं
फिर से प्रश्न होता है-
किम् मृग्यसे ?- क्या देखते हो ?
यजमान कहता है-
अनंततम् यानी अनंत भगवान को देखता हूं.
पुरोहित का अगला प्रश्न होता है-
प्राप्तसत्वया? - क्या अनंत भगवान मिले?
इस प्रश्न का दो बार उत्तर न में आता है-
न प्राप्तोमया- नहीं, नहीं मिले
और तीसरी बार इस प्रश्न के उत्तर में यजमान कहता है
प्राप्तोमया- यानी हां अनंत भगवान मिल गए. 




प्रश्न है कि इन परंपराओं की क्या पृष्ठभूमि समझी जाए. लोक परंपराओं में समुद्र मंथन का यह भाव आखिर किस कारण इतना गहन होकर बैठा है.

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